संस्थाएँ व्यक्ति बनाते हैं जिनमें विकसित या अविकसित साहित्यकार, कलाकार, अध्यात्म पथिक, सामाजिक नेतृत्व, आदि आदि छिपा हो सकता है । उनके मन स्वयं के अस्तित्व व विश्व की अजस्र सत्ता के समझने व उस राह पर आए झंझावातों में उलझने उलझाने या सुलझने सुलझाने में लगे हो सकते हैं । वे मानसिक या आध्यात्मिक, अभुक्त या भुक्त, तरंगित या मुक्त या फिर जीवन मुक्त विचरते विहरते त्राणी और साथ ही लेखक, कवि, विचारक, कलाकार या सामाजिक कलाकार हो सकते हैं । संस्था कोई भी व्यक्ति बना सकता है पर संस्था की प्रबंधन परिपक्वता उसके व्यक्तित्व व आत्म तत्व की परिचायक होगी । जिन संस्था निदेशकों व संचालकों की आत्म जितनी कमजोर होगी, उतना ही वे अहंकार ग्रसित होंगे, प्रबंधन क्षमता में अक्षम होंगे, सदस्यों पर हावी होंगे, शासन करना चाहेंगे और स्वार्थ में तत्पर रह शोषण करेंगे । वे और संस्थाओं से प्रतिस्पर्द्धा करेंगे, बिना विशेष बात भी अपनी सीमित व संकुचित बुद्धि लगा उन सब में दोषारोपण करेंगे, काम कम करेंगे, टाँग ज़्यादा खींचेंगे, चलेंगे कम और अपना प्रचार ज़्यादा करेंगे ।
समय की धारा में बहे बहे शनै शनै या तो वे सृष्टि में स्वत: सुधर जाएँगे या या रसाताल में चले जाएँगे । समुचित संस्कार भोग कर वे पुन: अहंकार से मुक्ति पा सही समय पर झँकृत हो जाएँगे । जिन सुजनों व स्वजनों को वे अपने इन अपेक्षाकृत अविकसित दैहिक, मानसिक व अाध्यात्मिक अवस्थाओं के स्पन्दनों द्वारा जो कष्ट दिए हैं उस को कभी समझ पाएँगे और अपने ऊर्द्ध्व हुए व्यक्तित्व से अप्रतिम आनन्द दे पाएँगे । सृष्टि की इस प्रबंधन विधि व श्रँखला की विवशता के लिए सुधी जन सृष्टा की सीमाएँ देखते हुए उन्हें स्नेह देंगे तो हम स्वयं आनन्दित, उल्लसित, थिरकित व स्पन्दित होंगे । ऐसे विकासशील संस्था निदेशक आत्म प्रवंचना की इस लम्बी व अथक परिक्रिया में समय के गर्भ में पलते पकते धीरे धीरे भ्रूण से शिशु अवस्था में परिणित हो उचित समय पर अपने इस मणिपुरी गर्भ ग्रह से बाहर निकलेंगे और तव सृष्टि की प्रष्फुट छटा निहार अप्रतिम सौंदर्य को देख अपने अन्तरात्म का आनन्द ले सृष्टि के हर आत्म- पुष्प को बेहतर सेवा व आनन्द दे पाएँगे ।
संस्थाएँ व्यक्तियों से बनती हैं व व्यक्ति बनाती भी हैं । वे उनके व्यक्तित्व, कला, कृतित्व, अस्तित्व व आत्म का सर्वांगीण विकास भी करती हैं ,नेतृत्व अपरिपक्व होने पर वे विनाश भी कर सकती हैं । परिपक्व हो वे बेहतर उत्थान कर सकती हैं । कोई भी संस्था या राष्ट्र या विश्व व्यवस्था सृष्टा के ध्येयानुसार उसके भावानुकूल व भावानुरूप चल श्रेष्ठ कार्य कर सकती है । स्वार्थ में सिमट वही गुट बन सकती है और समाज व व्यक्तियों का वह अहित या विध्वंस कर सकती है । बृहत् भाव में बह व्यक्ति स्वयं संस्था होता है । वह सोच सा किचिंत कर्म या विधि मात्र से एक या अनेक या अनन्त संस्थाएँ बना सकता है । संसार का स्वामी होता हुआ कभी वह सहज, साकार या निराकार रह, एकान्त या अनन्त में रम रस रच भी सकता है ।
निराकार या निर्गुण अवस्था में रह ब्राह्मी सत्ता साकार का बेहतर चिर चेतन परिष्कृत प्रबंधन कर सकती है ! उस अवस्था में वह सृष्टि बंधन से मुक्त रह आत्म व अध्यात्म प्रबंधन में अधिक स्वतंत्र, स्वाधीन, संयुक्त, अनुरक्त या विरक्त हो सकती है । सृष्टा के सुसृष्ट व सुस्पष्ट जगत में जो गत है उसका आनन्द लेते चलिए समय से सब और स्पष्ट होता चला जाएगा । आप अपनी लीला बेझिझक करते चलिए और दूसरों की लीलाएँ देखते चलिए । आगे पीछे आपको, उनको व सबको सब समझ आजाएगा कि कोंन क्या खेल कर रहा है व कैसा कर रहा है । अद्रष्टा सृष्टा सब देख रहा है वही अलग अलग रूप दे व ले हम सबके साथ रास कर रहा है । आवश्यक है रस लेने की, रस देने की और निर्झर आनन्द में चिर मग्न रहने की ।